मिलकर सबसे रहिए मगर दबाव में किसी के नहीं!
आप ने बेशक लोगों से मिलना,उनकी हां में हां मिलाना, जैसे चाहे वैसे जीना , सब कुछ किया होगा। कई लोगों ने तो उसे आजीवन यह समझकर भी स्वीकार किया होगा कि अब यहीं होता आया हैं, जो हो रहा हैं होने दिया जाएं।

आप ने बेशक लोगों से मिलना,उनकी हां में हां मिलाना, जैसे चाहे वैसे जीना , सब कुछ किया होगा।
कई लोगों ने तो उसे आजीवन यह समझकर भी स्वीकार किया होगा कि अब यहीं होता आया हैं, जो हो रहा हैं होने दिया जाएं।
लेकिन यह नहीं होना चाहिए।
जी हां नहीं होना चाहिए।
आप अभिव्यक्ति की आज़ादी की तो बात करते हैं मगर आप इस तरह की सोच रखेंगे तो आप आज़ाद जीवन नहीं जी रहे।
आप स्व अस्तित्व से नहीं जी रहे।
आप किसी के मिलन सार रहने के लिए खुद को दबाव का हिस्सा बना रहे हैं।
यह भी दो भाव से समझने जैसा है।
एक वह जब आप खुशी से किसी व्यक्तित्व के स्वभाव से प्रभावित होकर मिलनसार जीवन जीने को लेकर आगे बढ़ते हैं।
दूसरा वह जब आप मजबूरी में यह सब मिलन सार के नाम पर दबदबा सहते चले जाते हैं।
जो कई बार आपके भीतर की वास्तविकता को जिंदा दफन कर देता हैं।
जैसा कि आप एक उदाहरण से समझिए।
कई लोग कहेंगे कि हां बिल्कुल उनके साथ ऐसा ही हुआ है।
जैसा कि आप के पास सीमित कोष है।
यानी कुछ ही रुपए है।
मगर आपकी विडम्बना है कि अब आपको अपने लिए नहीं बल्कि उस दबदबे की वजह से उन रुपयों से पहले वह कार्य करना होगा जो सामने वाला, मिलनसार होने के चलते आपको कहेगा।
दूसरा यहीं रूप तब सार्थक मिलन सार कहलायेगा जब आप पूर्ण निष्ठा से चाहते हैं कि यह रुपए मेरे हैं तो क्या हुआ वह मिलनसार व्यक्ति तो सदैव मेरे सुख दुख में मेरे साथ खड़ा रहा है।
तब ऐसी परिस्थिति में आप बिना सोचे समझे,बिना देर किए उन रुपयों का इस्तमाल उस व्यक्तित्व के लिए जरूर करेंगे।
अब यह दोनों ही विचार धाराएं एक ही सिक्के के पहलू हैं।
अब मनुष्य को यहीं तय करना होगा कि वह बिना किसी दबदबे के स्व अस्तित्व में जिए।
मिलनसार भी वास्तविक हो।
और दबदबा प्रेम का परिचय बने, विश्वास का सूत्र बने।
न कि मजबूरी या डर का।
जय श्री कृष्णा
जय हिंद
पूजा बाथरा
मोटिवेश्नल लेखिका राष्ट्रीय पत्रकार नई दिल्ली
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